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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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खण्डन किया गया है और न्यायावतार-सम्मत परोक्ष के दो भेद स्थिर किये गये हैं । वार्तिक के साथ उसकी स्वोपज्ञ व्याख्या भी है । इसका रचनाकाल वि० सं० १०६५ के आस-पास है ।
आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने वि० सं० १९४६ के आस-पास प्रमेयरत्नकोष नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ लिखा । यह ग्रन्थ प्रारम्भिक अध्ययन करने वालों के लिए बहुत काम का है ।
इसी समय आचार्य अनन्तवीर्य ने परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नामक एक संक्षिप्त और सरल टीका लिखी। यह टीका सामान्य स्तरवाले अध्येताओं के लिए विशेष उपयोगी है । इसमें प्रमेयकमलमार्तण्ड की तरह लम्बे-चौड़े विवादों को स्थान न देते हुए मूल समस्याओं का ही सौम्य भाषा में समाधान किया गया है ।
वादिदेवसूरि :
प्रमाणशास्त्र पर परीक्षामुख के समान ही एक अन्य ग्रन्थ लिखने वाले वादिदेवसूरि हैं। परीक्षामुख का अनुकरण करते हुए भी उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रमाणनयतत्त्वालोक में दो नये प्रकरण जोड़े जो परीक्षामुख में नहीं थे। एक प्रकरण तो नयवाद पर है जिसका माणिक्यचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में समावेश नहीं किया। यह प्रकरण जैन न्यायशास्त्र की पूर्णता के लिए आवश्यक है । इस प्रकरण के अतिरिक्त प्रमाणनयतत्त्वालोक में एक प्रकरण वादविद्या पर भी है । इस दृष्टि से परीक्षामुख की अपेक्षा यह ग्रन्थ कहीं अधिक उपयोगी है। वादिदेवसूरि इतना ही करके सन्तुष्ट न हुए अपितु उन्होंने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी । यह टीका स्याद्वादरत्नाकर के नाम से प्रसिद्ध है । इस बृहत्काय टीका में उन्होंने दार्शनिक समस्याओं का उस समय तक जितना
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