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________________ जैन धर्म-दर्शन का खण्डन करके दिगम्बर परम्परा की रक्षा का पूरा प्रयत्न किया है । शाकटायन और अभयदेव द्वारा दिये गये श्वेताम्बर पक्ष के हेतुओं का विस्तार से खण्डन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र लघीयस्त्रय पर टीका-रूप में लिखा गया ग्रन्थ है । इसमें भी मुख्य रूप से प्रमाणशास्त्र की चर्चा है । इतना होते हुए भी इसमें प्रायः प्रत्येक दार्शनिक विषय पर पूरा प्रकाश डाला गया है । वास्तव में देखा जाय तो प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों की शैली प्रमाणशास्त्र के अनुरूप है किन्तु सामग्री की दृष्टि से उनमें प्रत्येक विषय का समावेश है। तत्वज्ञान, शब्दशास्त्र, जातिवाद आदि सभी विषयों पर प्रभाचन्द्र की कलम चली है। मूल सूत्रों और कारिकाओं का तो मात्र आधार है। जो कुछ उन्हें कहना था वह किसी न किसी बहाने कह डाला। प्रभाचन्द्र की एक विशेषता और है-वह है विकल्पों का जाल फैलाने की। किसी भी प्रश्न को लेकर दस-पन्द्रह विकल्प सामने रख देना तो उनके लिए सामान्य बात थी। उनका समय वि० सं० १०३७ से ११२२ तक का है। वादिराज प्रभाचन्द्र के समकालीन थे। इन्होंने अकलंककृत न्यायविनिश्चय पर विवरण लिखा है । ग्रन्थों के उद्धरण देना इनकी विशेषता है। प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से यह विवरण महत्त्वपूर्ण है । जगह-जगह अनेकान्तवाद की पुष्टि की गई है और वह भी पर्याप्त मात्रा में। जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य : जिनेश्वर की रचना है न्यायावतार पर प्रमालक्ष्म नामक वार्तिक । इसमें इतर दर्शनों के प्रमाणभेद, लक्षण आदि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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