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तत्त्वविचार जीवन के बाह्य स्वार्थ का पोषण करती है तो दूसरी धारा मनुष्य के आत्मिक विकास को बल प्रदान करती है । एक का आधार वैषम्य है तो दूसरी का आधार साम्य है। इस प्रकार ब्राह्मण और श्रमण परम्परा का वैषम्य एवं साम्यमूलक इतना अधिक विरोध है कि महाभाष्यकार पतंजलि ने अहि-नकुल एवं गो-व्याघ्र जैसे शाश्वत विरोध वाले उदाहरणों में ब्राह्मण-श्रमण को भी स्थान दिया। जिस प्रकार अहि और नकुल, गौ और व्याघ्र में जन्मजात विरोध है, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण और श्रमण में स्वाभाविक विरोध है।' आचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थ में इसी बात का समर्थन करते हैं। इन उदाहरणों को उपस्थित करने का अर्थ यह नहीं कि ब्राह्मण और श्रमण समाज में एक साथ नहीं रह सकते। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि जीवन के ये दो पक्ष एक-दूसरे के विरोधी हैं । जीवन की ये दो वृत्तियाँ विरोधी आचार और विचार को प्रकट करती हैं । ये दोनों धाराएँ मानव-जीवन के भीतर रही हुई दो भिन्न स्वभाववाली वृत्तियों की प्रतीक मात्र हैं।
ब्राह्मण परम्परा का उपलब्ध मान्य साहित्य वेद है । वेद से हमारा अभिप्राय उस भाग से है जो संहिता-मंत्रप्रधान है। यह परम्परा मूल में 'ब्रह्मन्' के आसपास शुरू और विकसित हुई है, ऐसा प्रतीत होता है । 'ब्रह्मन्' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ पर हम केवल दो अर्थो को समझने का प्रयत्न करेंगे। पहला स्तुति या प्रार्थना और दूसरा यज्ञयागादि कर्म । वैदिक मन्त्रों
और सूक्तों की सहायता से जो नाना प्रकार की प्रार्थनाएं एवं स्तुतियाँ की जाती हैं उसे 'ब्रह्मन्' कहते हैं । वैदिक मन्त्रों द्वारा १. महाभाष्य, २. ४. ६. २. सिद्धहेम, ३. १. १४१.
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