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तत्त्वविचार
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माया स्वयं ही असिद्ध है। आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न है, प्रत्येक पिण्ड में अलग है। संसार के सभी जीवित प्राणी भिन्नभिन्न हैं क्योंकि उनके गुणों में भेद है, जैसे घट । जहाँ किसी वस्तु के गुणों में अन्य वस्तु के गुणों से भेद नहीं होता वहाँ वह उससे भिन्न नहीं होती, जैसे आकाश ।
दूसरी बात यह है कि यदि सारे संसार का अन्तिम तत्त्व एक ही आत्मा है तो सुख, दुःख, बन्धन, मुक्ति आदि किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती। जहाँ एक है वहाँ कोई भेद हो ही नहीं सकता । भेद हमेशा अनेकपूर्वक होता है । भेद का अर्थ ही अनेकता है। माया या अविद्या भी इस समस्या का समाधान नहीं कर सकती क्योंकि जहाँ केवल एक तत्व है वहाँ माया या अविद्या नाम की कोई चीज नहीं हो सकती । उसके लिए कोई गंजाइश नहीं रहती। तात्पर्य यह है कि एकतत्त्ववादी भेद का संतोषजनक समाधान नहीं कर सकता। यह हमारे अनुभव की बात है कि भेद होता है इसलिए भेद का अपलाप भी नहीं किया जा सकता । ऐसी दशा में सुख, दुःख,जनन, मरण, बन्धन, मुक्ति आदि अनेक दशाओं के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना अत्यावश्यक है।' ___ आत्मा के गुणों में भेद कैसे है, इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि आत्मा का सामान्य लक्षण उपयोग है। किन्तु यह उपयोग अनन्त प्रकार का होता है क्योंकि प्रत्येक आत्मा में भिन्नभिन्न उपयोग है। किसी आत्मा में उपयोग का उत्कर्ष है तो किसी में अपकर्ष है । उत्कर्ष और अपकर्ष की अन्तिम अवस्थाओं
१. विशेषावश्यक भाष्य, १५८२.
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