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________________ १७४ जैन धर्म-दर्शन के बीच में अनेक प्रकार हैं। आत्माएँ अनन्त हैं इसलिए आत्मा के भेद से उपयोग के भेद भी अनन्त हैं । ' यहाँ पर सांख्य दर्शन के उन तीन हेतुओं का भी निर्देश कर देना चाहिए जिनसे पुरुषबहुत्व की सिद्धि की गई है। ये तीनों हेतु आत्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए बहुत उपयोगी हैं । पहला हेतु है 'जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्' अर्थात् उत्पत्ति, मृत्यु और इन्द्रियादिकरणों की विभिन्नता से पुरुषबहुत्व का अनुमान हो सकता है। दूसरा हेतु है 'अयुगपत्प्रवृते:' अर्थात् अलग-अलग प्रवृत्ति को देखकर पुरुषबहुत्व की कल्पना हो सकती है । तीसरा हेतु है 'त्रैगुण्यविपर्ययात्' अर्थात् सत्त्व, रजस् और तमम् की असमानता से पुरुषबहुत्व की सिद्धि हो सकती है । सत्त्व, रजस् और तमस् की असमानता के स्थान पर जैन कर्म की असमानता का प्रयोग कर सकते हैं । आत्मा के बहुत्व की सिद्धि के लिए इतनी चर्चा काफी है । आत्मा 'पौद्गलिक कर्मों से युक्त है' यह लक्षण दो बातों को प्रकट करता है । पहली बात तो यह है कि जो लोग कर्म आदि की सत्ता में विश्वास नहीं रखते उनके सिद्धान्त का खण्डन करता है । दूसरी बात यह है कि जो लोग कर्मों को मानते हैं किन्तु उन्हें पौगलिक अर्थात् भौतिक नहीं मानते उनके मत को दूषित ठहराता है । 'कर्म' पत्र से प्रथम बात निकलती है और 'पौद्गलिक' पद से दूसरी बात प्रकट होती हैं। १. वही, १५८३. २. जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत् वृतेश्व | पुरुषबहुत्वं गुण्यविपर्यया ॥ Jain Education International सिद्ध - सांख्यकारिका, १८. -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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