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________________ तत्त्वविचार १७५ चार्वाक जो कि कर्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते उनकी मान्यता का खण्डन करते हुए कहा जा सकता है कि सुखदुःखादि की विषमता का कोई-न-कोई कारण अवश्य है क्योंकि यह एक प्रकार का कार्य है, जैसे अंकुरादि । केवल आत्मा में सुखदुःखादि की विषमता नहीं होती। वह तो अनन्तसुखात्मक है और फिर चार्वाक आत्मा को मानते भी नहीं । भूतों का विशिष्ट संयोग भी इस विषमता का कारण नहीं हो सकता क्योंकि उस संयोग की विषमता के पीछे कोई-न-कोई अन्य कारण अवश्य होना चाहिए जिसके कारण संयोग में वैषम्य होता है। वह कारण क्या है ? उस कारण की खोज में वर्तमान को छोड़कर भृत तक पहुँचना पड़ता है। वही कारण कर्म है । यदि कोई यह कहे कि हमें कर्मो का प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए कर्म मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसी अवस्था में उसे यह उत्तर दिया जा सकता है कि जो वस्तु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय न हो वह है ही नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता, अन्यथा भूत और भविष्य के जितने भी पदार्थ हैं सब असत हो जायेंगे क्योंकि उनका हमें इस समय प्रत्यक्ष नहीं हो रहा है । ऐसी दशा में सारा व्यवहार लुप्त हो जायगा। पिता की मृत्यु के बाद 'मैं अपने पिता का पुत्र हूँ' ऐसा नहीं कहा जा सकेगा क्योंकि पिता का प्रत्यक्ष ही नहीं है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेना पड़ता है । 'पुत्र' कार्य है इसलिए उसका कारण 'पिता' अवश्य होना चाहिए। इसी प्रकार कर्मों के कार्यो को देखकर कारण रूप कर्मों का अनुमान लगाना. ही पड़ता है । इसी चीज को दूसरी तरह से देखें । परमाणु इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं है किन्तु घटादि कार्य देखकर तत्कारणरूप परमाणुओं का अनुमान किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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