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जैन धर्म-दर्शन
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कोई भेद नहीं है । इसका कारण यह है कि इन तीनों का लिंग एक ही है । समभिरूढ यह मानने के लिए तैयार नहीं । वह कहता है कि यदि लिंग-भेद, संख्या-भ ेद आदि से अर्थभ ेद मान सकते हैं तो शब्दभ ेद से अर्थभ ेद मानने में क्या हानि है ? यदि शब्दभ ेद से अर्थभ ेद नहीं माना जाय तो इन्द्र और शक्र दोनों का एक ही अर्थ हो जाय । इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति 'इन्दनादिन्द्रः' अर्थात् 'जो शोभित हो वह इन्द्र है' इस प्रकार है । 'शकनाच्छक्रः' अर्थात् 'जो शक्तिशाली है वह शक्र है' यह शक की व्युत्पत्ति है । 'पूर्दारणात् पुरन्दरः' अर्थात् 'जो नगर आदि का ध्वंस करता है वह पुरन्दर है' इस प्रकार के अर्थ को व्यक्त करने वाला पुरन्दर शब्द है । जब इन शब्दों की. व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न है तब इनका वाच्य अर्थ भी भिन्न-भिन्न ही होना चाहिए। जो इन्द्र है वह इन्द्र है, जो शक्र है वह शत्र है और जो पुरन्दर है वह पुरन्दर है। न तो इन्द्र शक हो सकता है और न शक्र पुरंदर हो सकता है । इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा इत्यादि जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, सब में अर्थभद है ।
एवम्भूत - समभिरूढनय व्युत्पत्तिभ ेद से अर्थभ ेद मानने तक ही सीमित है, किन्तु एवम्भूतनय कहता है कि जब व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित होता हो तभी उस शब्द का वह अर्थ मानना चाहिए। जिस शब्द का जो अर्थ होता हो उसके होने पर ही उस शब्द का प्रयोग करना एवम्भूतनय है । इस लक्षण को इन्द्र, शक्र और पुरंदर शब्दों के द्वारा ही स्पष्ट किया जाता है । 'जो शोभित होता है वह इन्द्र है' इस व्युत्पत्ति को दृष्टि में रखते हुए जिस समय वह इन्द्रासन पर शोभित हो रहा हो उसी समय उसे इन्द्र कहना चाहिए । शक्ति का प्रयोग करते समय या अन्य कार्य करते समय उसके लिए इंद्र शब्द का
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