SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सापेक्षवाद ३६५ दोनों की दष्टि में साकल्य और वैकल्य का अन्तर है। सकलादेश की विवक्षा सकल धर्मों के प्रति है, जब कि विकलादेश की विवक्षा विकल धर्म के प्रति है। यद्यपि दोनों यह जानते हैं कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है-अनेकान्तात्मक है. किन्तु दोनों के कथन की मर्यादा भिन्न-भिन्न है। एक का कथन वस्तु के सभी धर्मो का ग्रहण करता है, जब कि दूसरे का कथन वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित है। अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण है । स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश है ।' द्रव्याथिक एवं पर्यायाथिक दृष्टि : वस्तु के निरूपण की जितनी भी दृष्टियाँ हैं, दो दृष्टियों में विभाजित की जा सकती हैं। वे दो दृष्टियाँ हैं द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्याथिक दृष्टि में सामान्य या अभेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश हो जाता है। विशेष या भेदमूलक जितनी भी दृष्टियाँ हैं, सब का समावेश पर्यायार्थिक दृष्टि में हो जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने इन दोनों दृष्टियों का समर्थन करते हुए कहा कि भगवान् महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टियाँ हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। महावीर का इन दो दृष्टियों से क्या अभिप्राय है, यह भी आगमों को देखने से स्पष्ट हो जाता है । भगवतीसूत्र में नारक जीवों की शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि अव्युच्छित्तिनय की १. स्याद्वादः सकलादेशो न यो विकलसंकथा । . ~लघीयस्त्रय, ३.६.६२. २. सन्मतितकं प्रकरण, १.३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy