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________________ गह का माना और यथाशक्ति जो भार तत्त्वविचार १०१ सच्ची अहिंसा है।' वनस्पति से लेकर मानव तक की अहिंसा की यह कहानी जैन परम्परा की विशिष्ट देन है। विचारों में एक आत्मा-एक ब्रह्म का आदर्श अन्यत्र भी मिल सकता है किन्तु आचार पर जितना भार जैन परम्परा ने दिया है उतना अन्यत्र नहीं मिल सकता। आचार-विषयक अहिंसा का यह उत्कर्ष जैन परम्परा की अपनी देन है, जो आज भी अधिकांश भारतीय जनता के जीवन में विद्यमान है। जैन परम्परा के अनुयायी तो इससे पूरे-पूरे प्रभावित हैं ही, इसमें कोई संशय नहीं। ____ अहिंसा को केन्द्र मानकर अमृषावाद, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह का आदर्श सामने रखा गया। यथाशक्ति जीवन को स्वावलम्बी, सादा और सरल बनाने के लिए ही श्रमण परम्परा ने इन सब बातों को अधिक महत्त्व दिया । असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण और संयम का परिपालन अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए आवश्यक हैं। साथ ही साथ अपरिग्रह का जो आदर्श है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है । जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास नहीं रह सकता। परिग्रह मनुष्य के आत्म-पतन का बहुत बड़ा कारण है । दूसरे शब्दों में, परिग्रह पाप:का बहुत बड़ा संग्रह है। जितना अधिक परिग्रह बढ़ता जाता है उतना ही अधिक पाप बढ़ता जाता है । मानव-समाज में वैषम्य उत्पन्न करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व परिग्रहबुद्धि पर है। परिग्रह का दूसरा नाम ग्रन्थि भी है। जितनी अधिक गाँठ बाँधी जाती है उतना ही अधिक परिग्रह बढ़ता है । किसी की गाँठ मन तक ही सीमित रहती है तो कोई बाह्य वस्तुओं की गाँठे बाँधता है। यह गाँठ जब तक नहीं खुलती । इन सब बाजार सरल बनाने महान का पालअपरिग्रह आत्म १. आचारांग, १. ४. १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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