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जैन धर्म-दर्शन तब तक विकास का द्वार बन्द रहता है। महावीर ने ग्रन्थिभेदन पर बहुत अधिक भार दिया है। इसलिए उनका नाम निर्ग्रन्थ पड़ गया और उनकी परम्परा भी निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। जैन परम्परा को छोड़ अन्य किसी परम्परा को यह नाम नहीं दिया गया। अपरिग्रह का मार्ग विश्वशान्ति का प्रशस्त मार्ग है। इस मार्ग का उल्लंघन करनेवाला संसार को स्थायी शान्ति नहीं दे सकता । वह स्वयं पतनोन्मुख होता है, साथ ही साथ अन्य प्राणियों को भी अपदस्थ करता है-नीचे गिराता है । स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपरिग्रह अत्यन्त आवश्यक है। ... आचार की इस भूमिका पर कर्मवाद का जन्म होता है। कर्मवाद का अर्थ है कार्य-कारणवाद । प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है और प्रत्येक कारण किसी न किसी कार्य को उत्पन्न करता है। यह कारण और कार्य का पारस्परिक सम्बन्ध ही जगत् की विविधता और विचित्रता की भूमिका है। हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हमें किसी भी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही आचारशास्त्र को नींव है । यह एक अलग प्रश्न है कि व्यक्ति के कर्मों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और समाज के कर्म व्यक्ति के जीवन-निर्माण में कितने अंश में उत्तरदायी हैं ? इतना निश्चित है कि विना कर्म के किसी प्रकार का फल नहीं मिल सकता। बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता। कर्मवाद का अर्थ यही है कि वर्तमान का निर्माण भून के आधार पर होता है और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर। व्यक्ति अपनी मर्यादा के अनुसार वर्तमान और भविष्य को परिवर्तित कर सकता है, किन्तु यह परिवर्तन भी कर्मवाद का ही अंग
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