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________________ १५६ इन्हीं आठ भेदों को तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस प्रकार बताया : पहले ज्ञान के पाँच भेद किये - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनमें से प्रथम दो अर्थात् मति और श्रुत को परोक्ष कहा । शेष तीन अर्थात् अवधि, मन:पर्यय और केवल को प्रत्यक्ष कहा । इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम तीन ज्ञानों को विपर्यय कहा । इस प्रकार दो परोक्ष, तीन प्रत्यक्ष और तीन विपरीत यों कुल मिलाकर ज्ञान के आठ भेद हुए । ज्ञानोपयोग की चर्चा इन आठ भेदों के साथ समाप्त होती है । दर्शनोपयोग : तत्त्वविचार ज्ञानोपयोग की तरह दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का हैस्वभावदर्शन और विभावदर्शन । स्वभावदर्शन आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है । स्वभावज्ञान की तरह यह भी प्रत्यक्ष एवं पूर्ण होता है । इसे केवलदर्शन कहते हैं । विभावदर्शन तीन प्रकार का होता है - चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन । चक्षुर्दर्शन- चक्षुरिन्द्रिय से होनेवाला निराकार और निर्विकल्पक बोध चक्षुर्दर्शन है । चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता के कारण चक्षुर्दर्शन नामक स्वतन्त्र भेद किया गया है । अचक्षुर्दर्शन- चक्षुरिन्द्रियातिरिक्त इन्द्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है वह अचक्षुर्दर्शन है । अवधिदर्शन - सीधा आत्मा से होनेवाला रूपी पदार्थों का दर्शन अवधिदर्शन है । १. तत्त्वार्थ सूत्र, १६ - १२; १.३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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