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जैन धर्म-दर्शन
ज्ञान मिथ्या होता है । जिस ज्ञाता की श्रद्धा ( दर्शन ) सम्यक् होती है उसका ज्ञान भी सम्यक् होता है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का आधार श्रद्धा है, बाह्य पदार्थ नहीं ।
ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । जो जीव अपनी स्वाभाविक अवस्था में होता है उसका ज्ञान पूर्ण होता है । यही ज्ञान केवलज्ञान है । इस ज्ञान के लिए आत्मा को किसी अन्य कारण की आवश्यकता नहीं होती । इन्द्रियादि कारण उसके लिए किसी प्रकार भी उपकारक नहीं होते । ज्ञानावरण कर्म का प्रभाव होने से संसारी - बद्ध आत्मा का ज्ञान पूर्ण नहीं होता। यह अपूर्ण ज्ञान चार प्रकार का होता है । जिस ज्ञान का आधार इन्द्रिय और मन होता है वह ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। जिस ज्ञान का आधार अन्य पुरुष का ज्ञान होता है वह ज्ञान श्रुतज्ञान है । जो ज्ञान प्रत्यक्ष तो होता है अर्थात् इन्द्रियादि बाह्य करणों की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु सीमित होता है - अपूर्ण होता है वह अवधिज्ञान है । जो ज्ञान मन सरीखे सूक्ष्म रूपी द्रव्य को अपना विषयं बनाता है वह मन:पर्ययज्ञान है । यह ज्ञान भी मन तक ही सीमित है । यह कभी मिथ्या नहीं होता । उपर्युक्त अपूर्ण ज्ञान के चार प्रकारों में से प्रथम तीन प्रकार हैं । ये तीन प्रकार के ज्ञान मिथ्यात्वमोहनीय कारण होते हैं । जब श्रद्धा सम्यक् हो जाती है तब तीनों ज्ञान सम्यक् हो जाते हैं । इस प्रकार ज्ञानोपयोग के कुल आठ
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भेद हुए -
१. केवलज्ञान (स्वभावज्ञान), २. मतिज्ञान, ३. श्रुतज्ञान, ४. अवधिज्ञान, ५ मन:पर्ययज्ञान, ६. मत्यज्ञान, ७ श्रुताज्ञान, ८. विभंगज्ञान ।
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मिथ्या भी होते कर्म के उदय के
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