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जैन धर्म-दर्शन
और जिसके वचनों को प्रमाण मानकर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके ।' यदि किसी को आत्मा का प्रत्यक्ष होता तो उसके वचनों को प्रमाण मानकर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की जाती। ऐसे व्यक्ति के अभाव में आगम-प्रमाण भी व्यर्थ है। थोड़ी देर के लिए यदि आगम-प्रामाण्य मान भी लिया जाय तथापि आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि आगम परस्पर विरोधी बातें बताते हैं। किसी के आगम में किसी बात की सिद्धि मिलती है तो किसी का आगम उसी बात का खण्डन करता है । कोई आगम एक बात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात का खण्डन करता है। कोई आगम एक वात को सत्य एवं वास्तविक मानता है तो दूसरा उसी बात को मिथ्या एवं काल्पनिक समझता है । ऐसी स्थिति में आगम को आधार मानकर आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि करना खतरे से खाली नहीं।
उपमान से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि जगत् में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जिसकी समानता के आधार पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके । जब आत्मा का ही प्रत्यक्ष नहीं तो अमुक पदार्थ आत्मा के सदृश है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? मूल के अभाव में सादृश्यज्ञान केवल कल्पना है। 'यह उसके समान है' ऐसा कथन तभी संभव है जब उस पदार्थ का, जिसके समान अमुक पदार्थ है, कभी प्रत्यक्ष हुआ हो । जब मूल पदार्थ का ही प्रत्यक्ष न हो तब समानता के आधार पर उस पदार्थ का ज्ञान होना असम्भव है।
अर्थापत्ति से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता । ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसके सद्भाव को देखकर यह १. वही, १५५२.
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