SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૦૪ जैन धर्म-दर्शन समाज या पशु-पक्षीसमाज ही समाविष्ट हो, अपितु वनस्पति जैसे अत्यन्त सूक्ष्म जीवसमूह का भी समावेश हो । यह दृष्टि विश्वप्रेम की अद्भुत दृष्टि है । विश्व का प्रत्येक प्राणी, चाहे वह मानव हो या पशु, पक्षी हो या कीट, वनस्पति हो या अन्य क्षुद्र जीव, आत्मवत् है । किसी भी प्राणी का वध करना अथवा उसे कष्ट पहुँचाना आत्मपीड़ा के समान है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भूमिका पर प्रतिष्ठित यह साम्यदृष्टि श्रमण परम्परा का प्राण है । सामान्य जीवन को ही अपना चरम लक्ष्य मानने वाला साधारण व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुँच सकता । यह भूमिका स्व और पर के अभेद की पृष्ठभूमि है । यही पृष्ठभूमि श्रमण-संस्कृति का सर्वस्व है । श्रमण परम्परा की अनेक शाखाएं रही हैं और आज भी मौजूद हैं। जैन, बौद्ध, आजीविक आदि विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । जैन और बौद्ध परम्पराएं तो स्पष्टरूप से श्रमण संस्कृति की शाखाएं हैं । आजीविक आदि भी इसी परम्परा की शाखाएं हैं, किन्तु दुर्भाग्य से आज उनका मौलिक साहित्य उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि निश्चितरूप से इनके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसा होते हुए भी इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि ये परम्पराएं भी वैदिक परम्परा की विरोधी रही हैं । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएं वेदों को प्रमाण नहीं मानतीं । वे यह भी नहीं मानतीं कि वेद का कर्ता ईश्वर है अथवा वेद अपौरुषेय है । ब्राह्मण वर्ग का जाति की दृष्टि से या पुरोहित के नाते गुरुपद भी स्वीकार नहीं करतीं । उनके अपने-अपने ग्रन्थ हैं, जो निर्दोष आप्त व्यक्ति की रचनाएं हैं। उनके लिए वे ही ग्रंथ प्रमाणभूत हैं । जाति की अपेक्षा व्यक्ति की पूजा दोनों को मान्य है और व्यक्ति-पूजा का आधार है गुण और कर्म । दोनों । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy