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ज्ञानमीमांसा
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को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयत्न किया है वैसा प्रयत्न आगमों में नहीं मिलता किन्तु मूलरूप में यह विषय उनमें अवश्य है । तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण :
उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा। उन्होंने पहले पाँच ज्ञानों के नाम गिनाए और फिर कह दिया कि ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। प्रमाण का अलग लक्षण बताकर, फिर ज्ञान में उस लक्षण को घटाकर, ज्ञान और प्रमाण का अभेद सिद्ध करने के बजाय ज्ञान को ही प्रमाण कह दिया | प्रामाण्य- अप्रामाण्य का अलग विचार न करके ज्ञान के स्वरूप के साथ ही उनका स्वरूप समझ लेने का संकेत कर दिया ।
बाद में होने वाले तार्किकों ने इस पद्धति में परिवर्तन कर दिया । उन्होंने प्रमाण की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करना प्रारम्भ किया । उनका लक्ष्य प्रामाण्य- अप्रामाण्य की ओर अधिक रहा । मात्र ज्ञानों के नाम गिनाकर और उनको प्रमाण का नाम देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए अपितु प्रमाण का अन्य दार्शनिकों की तरह स्वतन्त्र विवेचन किया। उसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति पर भी विशेष भार दिया । ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी कौन-सा ज्ञान प्रमाण हो सकता है, इसकी विशद चर्चा की । इस चर्चा के बाद में इस निर्णय पर पहुँचे कि ज्ञान और प्रमाण कथंचिद् अभिन्न हैं ।
प्रमाण क्या है ? इस प्रश्न को हस्तगत करने के लिए एकदो आचार्यों का आधार लें । माणिक्यनन्दी प्रमाण का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वही ज्ञान प्रमाण है जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है ।" ज्ञान अपने को भी जानता
१. परीक्षामुख, १.२.
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