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________________ ४२ जैन धर्म-दर्शन के संचय की समानता होते हुए भी बाह्य पदार्थों तथा परिस्थितियों की असमानता के कारण सुख-दुःख की अनुभूति में कुछ अन्तर आना अस्वाभाविक नहीं है। जैसे बाह्य वस्तुओं की अभिन्नता अथवा समानता होने पर भी व्यक्तित्व की असमानता के कारण सुख-दुःख की अनुभूति में अन्तर आ जाता है वैसे ही व्यक्तित्व की अभिवता अथवा समानता होने पर भी बाह्य परिस्थितियों की असमानता के कारण सुख-दुःख के अनुभव में भिन्नता आना स्वाभाविक है। बाह्य पदार्थों अथवा साधनों की प्राप्ति के कई कारण हैं। उन सब कारणों को हम दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं : अपने पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न द्वारा पदार्थ की प्राप्ति और स्वतः अर्थात् बिना किसी प्रयत्न के वस्तु की उपलब्धि । प्रयत्न द्वारा वस्तु की प्राप्ति में अनेक बाह्य कारणों के साथ-ही-साथ पुण्यपापरूप आन्तरिक कारण भी अपना यथोचित योगदान करता है। व्यक्ति का किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रयत्न करना उसकी बुद्धि, शक्ति, विचारधारा, विश्वास आदि पर निर्भर होता है। ये सब गुण व्यक्ति के पुण्य पापपुंज के अनुसार होते हैं अर्थात् जिस समय व्यक्ति के व्यक्तित्व का जैसा रूप होता है उस समय वह उसी के अनुरूप बुद्धि आदि के द्वारा बाह्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रयत्न करता है। उसके पुण्य-पार से सर्वया असम्बद्ध बाह्य परिस्थितियों की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता की स्थिति में फलप्राप्ति में अन्तर आना अर्थात् कभी इच्छित फल की प्राप्ति होना, कभी इच्छित फल की प्राप्ति न होना, कभी अधिक फल की प्राप्ति होना, कभी कम फल की प्राप्ति होना इत्यादि उसके पुण्य-पाप पर निर्भर नहीं है। इसके लिए न उसके पुण्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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