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कर्म सिद्धान्त
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को सुख-दुःख का मूल कारण मानना अयुक्तिसंगत है। जिस व्यक्ति में सुख-दुःख की उत्पत्ति की शक्ति या योग्यता विद्यमान रहती है अर्थात् जिसमें पुण्य एवं पाप की सत्ता होती है उसी में बाह्य पदार्थ सुख एवं दुःख उत्पन्न कर सकते हैं । जो व्यक्ति अमुक प्रकार के सुख अथवा दुःख से परे है अर्थात् जिसमें अमुक प्रकार का सुख-दुःख उत्पन्न नहीं हो सकता उसे उस सीमा तक बाह्य पदार्थ प्रभावित नहीं करते । तात्पर्य यह है कि बाह्य पदार्थ किसी व्यक्ति को उसी सीमा तक प्रभावित करते हैं जिस सीमा तक उसका व्यक्तित्व उनसे प्रभावित हो सकता है । कोई भी पदार्थ अथवा वातावरण सबको समान रूप से प्रभावित नहीं कर सकता । इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न प्रकार का है अर्थात हरेक के पुण्य पाप की संचिति यानी सुख-दुःख का अनुभव करने की योग्यता अलगअलग तरह की है। वाह्य वस्तुएं एवं परिस्थितियाँ व्यक्ति में विद्यमान योग्यता के अनुसार ही सुख-दुःख उत्पन्न करने में सहायक कारण के रूप में कार्य करती हैं । सुख-दुःख का मूल कारण तो व्यक्ति में ही मौजूद होता है जो पुण्य-पाप के संग्रह के रूप में रहता है । इस प्रकार सुख-दुःख का उपादान - कारण अर्थात् मूल कारण स्वयं व्यक्ति है, जबकि बाह्य पदार्थ निमित्तकारण अर्थात् सहायक कारण के रूप में हैं। इस दृष्टि से बाह्य वस्तुओं एवं परिस्थितियों का महत्त्व स्वीकार करना होगा क्योंकि किसी भी कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण की प्रधानता होते हुए भी निमित्त कारण का भी योगदान होता है । उपादान - कारण की समानता होते हुए भी निमित्त कारण की भिन्नता के कारण कार्य में कुछ भिन्नता आ ही जाती है । इसी प्रकार सुख-दुःख का अनुभव करने की शक्ति अर्थात् पुण्य-पाप
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