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तत्त्वविचार
१५३ दूसरी बात यह है कि कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि शरीर की उपस्थिति में भी ज्ञानादि गुणों का अभाव रहता है।' सुषुप्ति, मूर्छादि अवस्थाओं में शरीर के विद्यमान रहते हुए भी ज्ञानादि गुण नहीं मिलते। इससे मालूम होता है कि ज्ञानादि गुण शरीर के नहीं, अपितु किसी अन्य तत्त्व के हैं । यदि शरीर के गुण होते तो रूपादि की भाँति वे भी किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध होते।
शरीर ज्ञानादि गुणों का कारण नहीं हो सकता क्योंकि शरीर भौतिक तत्त्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतनाशून्य हैं । जब भूतों में ही चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जायगा। प्रत्येक कार्य कारण में अनुद्भत रूप से रहता है । जब वह कारण कार्यरूप में परिणत होता है तब वह शक्तिरूप से रहा हुआ कार्य अभिव्यक्तरूप में हमारे सामने आ जाता है । इसके अतिरिक्त कारण और कार्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जब भौतिक तत्त्वों में ही चेतना नहीं है तब यह कैसे सम्भव है कि शरीर चैतन्यगुणवाला हो जाय ? यदि चेतना प्रत्येक भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं हो सकती। रेणु के प्रत्येक कण में न रहनेवाला तैल रेणुकणों के संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि चैतन्य चतुर्भूत के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है यद्यपि इन चारों १. ज्ञानं न शरीरगुणं, सति शरीरे नि वर्तमानत्वात् ।
-प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ११४. २. प्रत्येकमसती तेषु न स्याद् रेणुतैलवत् ।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४४. ३. षड्दर्शनसमुच्चय, ६. ८३.
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