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जैन धर्म-दर्शन पूर्वो का एकदेश आचार्य-परम्परा से गुणधराचार्य को प्राप्त हुआ। उन्होंने प्रवचन-वात्सल्य के वशीभूत हो ग्रंथ-विच्छेद के भय से १६००० पदप्रमाण पेज्जदोसपाहुड का १८० गाथाओं में उपसंहार किया। महाकर्मप्रकृतिप्रामृत अर्थात् षट्खण्डागम के प्रणेता आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि के समय का उल्लेख भी धवला में इसी रूप में है। इन उल्लेखों को देखने से ऐसी प्रतीति होती है कि कषायप्राभृतकार और महाकर्मप्रकृति प्राभृतकार सम्भवतः समकालीन रहे होंगे। धवला एवं जयधवला के अध्ययन से ऐसी कोई प्रतीति नहीं होती कि अमुक प्राभूत की रचना अमुक प्राभृत से पहले की है अथवा वाद की । अन्य किसी प्राचीन ग्रंथ में भी एतद्विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता।
कषायप्राभूतकार ने स्वयमेव दो गाथाओं में अपने ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषयों अर्थात अर्थाधिकारों का निर्देश किया है। इन गाथाओं की व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और जयधवलाकार ने भिन्न-भिन्न रूप से की है। यद्यपि ये दोनों इसमें एकमत हैं कि कषायप्राभूत के १५ अर्थाधिकार हैं तथापि उनकी गणना में एकरूपता नहीं है। चूर्णिसूत्रकार ने अर्थाधिकार के निम्नोक्त १५ भेद गिनाये हैं : १. पेज्जदोस (प्रेयोद्वेष ), २. ठिदिअणुभागविहत्ति (स्थिति-अनुभागविभक्ति ), ३. बंधग अथवा बंध (बंधक या बंध), ४. संकम (संक्रम), ५. वेदअ अथवा उदअ ( वेदक या उदय ), ६. उदीरणा, ७. उवजोग (उपयोग), ८. चउठाण (चतु:स्थान), ६. वंजण (व्यञ्जन), १०. सम्मत्त अथवा दसणमोहणीय-उवसामणा (सम्यक्त्व या दर्शममोहनीय की उपशामना , ११ सणमोहणीयक्खवणा (दर्शनमोहनीय की क्षपणा). १२. देसविरदि
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