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जैन धर्म दर्शन का साहित्य
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और द्वेष रूप कषाय का प्रतिपादन किया गया है इसलिए इसके दोनों नाम सार्थक हैं । ग्रन्थ की प्रतिपादन - शैली अति गूढ़, संक्षिप्त एवं सूत्रात्मक है । प्रतिपाद्य विषयों का केवल निर्देश कर दिया गया है ।
कर्भ प्राभृत अर्थात् षट्खण्डागम के ही समान कषायप्राभृत का उद्गमस्थान भी दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग ही है । उसके ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के प्रयोद्वेष नामक तीसरे प्राभृत से कषायप्राभृत की उत्पत्ति हुई है । जिस प्रकार कर्मप्रकृतिप्राभृत से उत्पन्न होने के कारण षट्खण्डागम को कर्मप्राभृत, कर्मप्रकृतिप्राभृत अथवा महाकर्मप्रकृतिप्रामृत कहा जाता है उसी प्रकार प्रेयोद्वेषप्राभृत से उत्पन्न होने के कारण कषायप्राभृत को प्रेयोद्वेषप्राभृत कहा जाता है ।
कषायप्राभृत के रचयिता आचार्य गुणधर हैं जिन्होंने गाथासूत्रों में प्रस्तुत ग्रंथ को निबद्ध किया है। आचार्य गुणधर ने इस कषायप्राभृत ग्रंथ की रचना क्यों की ? इसका समाधान करते हुए जयधवला टीका में आचार्य वीरसेन ने बताया है कि ज्ञानप्रवाद ( पाँचवें ) पूर्व की निर्दोष दसवीं वस्तु के तीसरे कषायप्राभृत रूपी समुद्र के जलसमुदाय से प्रक्षालित मतिज्ञान रूपी लोचनसमूह से जिन्होंने तीनों लोकों को प्रत्यक्ष कर लिया है तथा जो त्रिभुवन के परिपालक हैं उन गुणधर भट्टारक ने तीर्थ के व्युच्छेद के भय से कषायप्राभृत के अर्थ से युक्त गाथाओं का उपदेश दिया ।
कषायप्राभृतकार आचार्य गुणधर के समय का उल्लेख करते हुए जयधवलाकार ने लिखा है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और
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