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जैन धर्म-दर्शन
करना-इस प्रकार नौ भंगपूर्वक प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग किया जाता है। पांच महावत :
जैन धर्म में छः जीवनिकाय माने गये हैं : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । इन जीवनिकायों की हिंसा का नवकोटि-प्रत्याख्यान सर्वप्राणातिपात-विरमण महाव्रत कहलाता है। पृथ्वोकाय अर्थात् भूमि, अप्काय अर्थात् जल, तेजस्काय अर्थात् वह्नि, वायुकाय अर्थात् पवन, वनस्पतिकाय अर्थात् हरित और त्रसकाय अर्थात् द्वीन्द्रियादि प्राणी। महाव्रतधारी श्रमण का कर्तव्य है कि वह दिन में अथवा रात्रि में अकेले अथवा समूह में, सोते हुए अथवा जागते हुए भूमि, भित्ति, शिला, पत्थर, धूलियुक्त शरीर, वस्त्र आदि को हस्त, पाद, काष्ठ, अंगुली, शलाका आदि से न झाड़े, न पोंछे, न इधर-उधर हिलाये, न छेदन करे, न भेदन करे अपितु वस्त्रादि मृदु साधनों से सावधानीपूर्वक झाड़े-पोछे । उदक, ओस, हिम, आर्द्र शरीर अथवा आर्द्र वस्त्र को न छए, न सुखाए, न निचोड़े, न झटके, न अग्नि के पास रखे। अपने गीले शरीर आदि को सावधानीपूर्वक सुखाए अथवा सूखने दे। अग्नि, अंगार, चिनगारी, ज्वाला अथवा उल्का को न जलाये, न बुझाये, न हिलाये, न जल से शान्त करे, न बिखेरे । पंखे, पत्र, शाखा, वस्त्र, हस्त, मुख आदि से हवा न करे। बीज, अंकुर, पौधे, वृक्ष आदि पर पैर न रखे, न बैठे, न सोये । हाथ, पैर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, शय्या, संस्तारक आदि में कीट, पतंग, कुंथु, चींटी आदि दिखाई देने पर उन्हें सावधानीपूर्वक एकान्त में छोड़ दे। प्रत्येक जीव जीने की इच्छा करता है। कोई भी मरना नहीं चाहता। जिस प्रकार हमें अपना
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