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________________ तत्वविचार १९१ के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। नये-नये पदार्थों के विभाजन से नये-नये परमाणु बनते रहते हैं। वस्तुतः समस्त परमाणुओं की एक ही जाति है और वह है पुद्गल अथवा भूत । जैन दर्शन की एक मान्यता यह है कि एक आकाश-प्रदेश में अर्थात् एक परमाणु-प्रमाण स्थान में अनन्त परमाण रह सकते हैं । यह कैसे? परमाणुओं में सूक्ष्मभाव की परिणति होने के कारण ऐसा होता है । सूक्ष्मभाव से परिणत अनन्त परमाणु एक आकाश-प्रदेश में रहते हैं : परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेणेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते । इस मान्यता में विरोध की प्रतीति होती है। परमाणु पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश है। यदि सूक्ष्मतम की भी सूक्ष्मभाव से परिणति होने लगे तो उसे सूक्ष्मतम कहने का कोई अर्थ ही नहीं रहता। जो परमाणु अविभाज्य है, जिसके आदि, मध्य और अन्त एक ही हैं वह सूक्ष्मभाव से कैसे परिणत होगा? किसी वस्तु के सूक्ष्मभाव से परिणत होने के दो ही रूप होते हैं : १. उसके किसी अंश का विच्छेद होना, २. उसका संकुचित होना । परमाणु में इनमें से किसी भी रूप के सद्भाव की संभावना नहीं है। परमाणु निरंश एवं अविभाज्य है अतः उसके किसी अंश के विच्छेद का प्रश्न नहीं उठता। वह संकुचित भी नहीं हो सकता क्योंकि संकुचन लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊंचाई सापेक्ष है। जिसकी न कोई लम्बाई है, न कोई चौड़ाई है और न कोई ऊंचाई है वह संकुचित कैसे हो सकता है ? संकुचन अथवा प्रसरण न तो आकाश के एक प्रदेश में संभव है और न पुद्गल के एक परमाणु में ही । आकाश के अनेक प्रदेश एवं पुद्गल के अनेक परमाणु विद्यमान होने पर ही संकुचन-प्रसरण की शक्यता होती है। ऐसी स्थिति में एक आकाश-प्रदेश में अनन्त परमाणु माणु में इनम निरंश एवं आता । वह सचाई सापेक्ष है। चन लम्बा। कोई चौडा संकुचन पुदगल Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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