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कर्मसिद्धान्त
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होता है कि किसी कर्म की स्थिति एवं फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसी बात नहीं है। अपने प्रयत्नविशेष अथवा अध्यवसायविशेष की शुद्धताअशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। एक समय हमने कोई अशुभ कार्य किया अर्थात् पापकम किया और दूसरे समय शुभ कार्य किया तो पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति आदि में यथासम्भव परिवर्तन हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कार्य द्वारा बाँधे गये कर्म की स्थिति आदि में भी अशुभ कार्य करने से समयानुसार परिवर्तन हो सकता है। तात्पय यह है कि व्यक्ति के अध्यवसायों के अनुसार कर्मों की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है । इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए जैन कर्मवाद को इच्छास्वातन्त्र्य का विरोधी नहीं माना गया है।
७. संक्रमण-एक प्रकारके कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है। संक्रमण किसी एक मूलप्रकृति की उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं। दूसरे शब्दों में, सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवाद के रूप में आचार्यों ने यह भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथा दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियों में ही (कुछ अपवादों को छोड़कर) परस्पर संक्रमण होता है । इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त नियम के अपवाद हैं ।
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