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________________ ३७८ जैन धर्म-दर्शन प्रकार के विकल्प बनते हैं वह सप्तभगी है । विधि और निषेधरूप धर्मों का वस्तु में कोई विरोध नहीं है। दोनों पक्ष एक ही वस्तु में अविरोधरूप से रहते हैं। यह दिखाने के लिए 'अविरोधपूर्वक' अंश का प्रयोग किया गया है । घट के अस्तित्व धर्म को लेकर जो सप्तभंगी बनती है वह इस प्रकार है : - १. कथंचित् घट है। २. कथंचित् घट नहीं है। — ३. कथंचित् घट है और नहीं है । ४. कथंचित् घट अवक्तव्य है। ५. कथंचित घट है और अवक्तव्य है। ६. कथंचित् घट नहीं है और अवक्तव्य है । ७. कथंचित् घट है, नहीं है और अवक्तव्य है। प्रथम भंग विधि की कल्पना के आधार पर है। इसमें घट के अस्तित्व का विधिपूर्वक प्रतिपादन है। दूसरा भंग प्रतिषेध की कल्पना को लिये हुए है। जिस अस्तित्व का प्रथम भंग में विधिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है उसी का इसमें निषेधपूर्वक प्रतिपादन है। प्रथम भंग में विधि की स्थापना की गई है। दूसरे में विधि का प्रतिषेध किया गया है। तीसरा भंग विधि और निषेध दोनों का क्रमशः प्रतिपादन करता है। पहले विधि का ग्रहण करता है और बाद में निषेध का । यह भंग प्रथम और द्वितीय दोनों भंगों का संयोग है। __चौथा भंग विधि और निषेध का युगपत् प्रतिपादन करता Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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