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सापेक्षवाद
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है। दोनों का युगपत् प्रतिपादन होना वचन के सामर्थ्य के बाहर है, अत: इस भंग को अवक्तव्य कहा गया है।
पाँचवाँ भंग विधि और युगपत् विधि और निषेध दोनों का प्रतिपादन करता है। प्रथम और चतुर्थ के संयोग से यह भंग बनता है।
छठे भंग में निषेध और युगपत् विधि और निषेध दोनों का कथन है । यह भंग द्वितीय और चतुर्थ का संयोग है।
सातवाँ भंग क्रम से विधि और निषेध और युगपत् विधि और निषेध का प्रतिपादन करता है। यह तृतीय और चतुर्थ भंग का संयोग है।
प्रत्येक भंग को निश्चयात्मक समझना चाहिए, अनिश्चयात्मक या सन्देहात्मक नहीं। इसके लिए कई बार 'ही' (एव) का प्रयोग भी होता है, जैसे कथंचित् घट है ही आदि । यह 'ही' निश्चित रूप से घट का अस्तित्व प्रकट करता है। 'ही' का प्रयोग न होने पर भी प्रत्येक कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए। स्याद्वाद सन्देह या अनिश्चय का समर्थक नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है। चाहे 'ही' का प्रयोग हो, चाहे न हो, किन्तु यदि कोई वचन-प्रयोग स्याद्वाद-सम्बन्धी है तो यह निश्चित है कि वह 'ही' पूर्वक ही है। इसी प्रकार कथंचित् या स्यात् शब्द के विषय में भी समझना चाहिए। उनका प्रयोग न होने पर भी सन्दर्भ से वह समझ लिया जाता है।' १. अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते । विधी निषेधेऽप्यन्यत्र कुशलश्चेत् प्रयोजकः ।।
-~-लघीयस्त्रय, ६३.
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