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जैन धर्म-दर्शन __'कथंचित् घट है' इसका क्या अर्थ है ? किस अपेक्षा से घट है ? स्वरूप की अपेक्षा से घट है और पररूप की अपेक्षा से घट नहीं है। सब स्वरूप की अपेक्षा से है और पररूप की अपेक्षा से नहीं है । यदि ऐसा न हो तो सब सत् हो जाए अथवा स्वरूप की कल्पना ही असम्भव हो जाए।' कोई भी पदार्थ स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पररूप की दृष्टि से असत् है । यदि वह एकान्त रूप से सत् हो तो सर्वत्र और सर्वदा उपलब्ध होना चाहिए, क्योंकि वह हमेशा सत् है। जो हमेशा सत् होता है वह कदाचित् नहीं होता। स्वरूप क्या है और पररूप क्या है, इसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। हम कुछ दृष्टियों से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि स्वरूप और पररूप का क्या अभिप्राय है ? स्वरूप से क्या समझना चाहिए? पररूप का क्या अर्थ लेना चाहिए?
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से जिसकी विवक्षा होती है वह स्वरूप या स्वात्मा है। वक्ता के प्रयोजन के अनुसार अर्थ का ग्रहण करना स्वात्मा का ग्रहण कहलाता है। यह प्रयोजन भाषा के विविध प्रयोगों में झलकता है। एक शब्द प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रत्येक शब्द का मोटे तौर पर चार अर्थों में विभाग किया जाता है। इसी अर्थविभाग को न्यास कहते हैं। ये विभाग हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। सामान्य तौर पर किसी का एक नाम रख देना नामनिक्षेप है। मूर्ति, चित्र आदि स्थापनानिक्षेप है। भूत या भविष्यत् काल में रहने वाली योग्यता का वर्तमान
१. सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ।
अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।।
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