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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
चोर ग्रामवासियों से पराजित होकर भागता हुआ किसी गुफा, दुर्ग, खाई प्रथवा अन्य विषम स्थान के न मिलने पर सन, कपास, तृण श्रादि के अग्रभाग से अपने को ढकने की चेष्टा करता है तथा ढका हुप्रा नहीं होने पर भी अपने को ढका हुआ समझता हैछिपा हुआ नहीं होने पर भी अपने को छिपा हुआ समझता है उसी प्रकार तू भी अपने को छिपाने को चेष्टा कर रहा है, अपने को छिपा हुआ समझ रहा है, अम्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है । यह सुनकर गोशाल अत्यन्त क्रोधित हुआ और. महावीर को बुरी तरह गालियां देने लगा। उसने कहा कि तू पाज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट हो जाएगा। कदाचित् तू आज जीवित भी नहीं रहेगा। गोशाल का यह अभद्र व्यवहार देखकर महावीर के दो शिष्यों ने उसे समझाने का प्रयत्न किया किन्तु गोशाल ने क्रोधाभिभूत हो अपने तप-तेज से दोनों को जलाकर भस्म कर दिया । महावीर देखते रह गये ।
आगे शतककार ने यह बताया है कि सर्वज्ञ वीतराग भगवान् महावीर भी अपने ज्ञान एवं व्यवहार से गोशाल को तनिक भी प्रभावित न कर सके। जैसे महावीर के शिष्यों ने गोशाल को समझाया वैसे ही महावीर ने भी उसे समझाया। गोशाल महावीर पर भी उसी प्रकार क्रुद्ध हुआ तथा उन पर तेजोलेश्या का प्रहार कर कहने लगा कि तू मेरी इस तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वरजन्य दाह से पीड़ित हो छः मास पश्चात् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होगा। महावीर ने गोशाल को उसी भाषा में प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि तू ही अपनी तपोजन्य लेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से पीड़ित हो सात रात्रि पश्चात छद्मस्थ अवस्था में ही काल-कवलित होगा। मैं तो अभी सोलह वर्ष तक जिन के रूप में और विचरण करता रहूंगा। गोशाल व महावीर के बीच हुए इस झगड़े की चर्चा चारों ओर होने लगी। लोग कहते थेश्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में. दो जिन परस्पर झगड़ रहे हैं।
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