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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
४७ आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा, शरीर-सम्पदा, वचन-सम्पदा, वाचना-सम्पदा आदि का वर्णन है। पंचम अध्ययन दस प्रकार के चित्तसमाधि-स्थानों से सम्बद्ध है । षष्ठ अध्ययन में एकादश उपासक-प्रतिमाओं तथा सप्तम अध्ययन में द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का वर्णन है । अष्टम अध्ययन का नाम पर्युषणाकल्प है। वर्षाऋतु में श्रमण का एक स्थान पर रहना पर्युषणा कहलाता है । पर्युषणा-विषयक कल्प अर्थात् आचार का नाम है पर्युषणाकल्प । प्रस्तुत अध्ययन में पर्युषणाकल्प के लिए विशेष उपयोगी महावीरचरित-सम्बन्धी पाँच हस्तोत्तरों का निर्देश किया गया है : १. हस्तोत्तर नक्षत्र में महावीर का देवलोक से च्युत होकर गर्भ में आना, २. हस्तोत्तर में गर्भ-परिवर्तन होना, ३. हस्तोत्तर में जन्म-ग्रहण करना, ४. हस्तोत्तर में प्रव्रज्या लेना, ५. हस्तोत्तर में केवलज्ञान की प्राप्ति होना । कल्पसूत्र के रूप में प्रचलित ग्रन्थ इसी अध्ययन का पल्लवित रूप है । इसमें श्रमण भगवान् महावीर के जीवनचरित के अतिरिक्त मुख्य रूप से पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ इन तीन तीर्थंकरों की जीवनी भी दी गई है । अन्त में स्थविरावली एवं सामाचारी (श्रमण-जीवनसम्बन्धी नियमावली) भी जोड़ दी गई है । नवम अध्ययन में तीस मोहनीय स्थानों का वर्णन है । दशम अध्ययन का नाम आयतिस्थान है। इसमें विभिन्न निदान-कर्मों अर्थात् मोहजन्य इच्छापूर्तिमूलक संकल्पों का वर्णन किया गया है जो जन्म-मरण की प्राप्ति के कारण हैं । इस प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों में एक अध्ययन श्रावकाचार से सम्बद्ध है जिसमें उपासक-प्रतिमाओं का वर्णन है । शेष नौ अध्ययन श्रमणाचार-सम्बन्धी हैं।
बृहत्कल्प में छ: उद्देश हैं। प्रथम उद्देश में तालप्रलम्ब, मासकल्प, आपणगृह, घटीमात्रक, चिलिमिलिका, दकतीर,
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