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आदि आदि प्रव्रज्यापातिक्रान्त अशा एवं महीना करनी
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जैन धर्म-दर्शन चित्रकर्म, सागारिकनिश्रा, अधिकरण, चार, वैराज्य, अवग्रह, रात्रिभक्त, अध्वगमन, उच्चारभूमि, स्वाध्यायभूमि, आर्यक्षेत्र आदि विषयक विधि-निषेध हैं। कहीं-कहीं अपवाद एवं प्रायश्चित्त की भी चर्चा है । द्वितीय उद्देश में प्रथम बारह सूत्र उपाश्रय-विषयक हैं। आगे के तेरह सूत्रों में आहार, वस्त्र एवं रजोहरण का विचार किया गया है । तृतीय उद्देश में उपाश्रय-प्रवेश, चर्म, वस्त्र, समवसरण, अन्तरगृह, शय्या-संस्तारक, सेना आदि से सम्बद्ध विधि-विधान हैं। चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हस्तकर्म, मैथुन एवं रात्रिभोजन अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है । साधर्मिक स्तन्य, अन्यधार्मिक स्तन्य, मुष्टिप्रहार आदि के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है । पण्डक, क्लीब आदि प्रव्रज्या के अयोग्य हैं। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कालातिक्रान्त एवं क्षेत्रातिक्रान्त अशनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। उन्हें गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका एवं मही नामक पांच महानदियाँ महीने में एक बार से अधिक पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छोटी नदियाँ महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं । पंचम उद्देश में ब्रह्मापाय, परिहारकल्प, पुलाकभक्त आदि दस प्रकार के विषयों से सम्बद्ध दोषों एवं प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठ उद्देश में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को छः प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए : अलीक वचन, हीलित वचन, खिसित वचन, परुष वचन, गार्हस्थिक वचन और व्यवशमितोदीरण वचन । कल्पस्थिति-आचारदशा छः प्रकार की बताई गई है : सामायिकसंयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति ।
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