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________________ ४६ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य व्यवहार में दस उद्देश हैं। पहले उद्देश में निष्कपट और सकपट आलोचक, एकलविहारी साधु आदि से सम्बद्ध प्रायश्चित्तों का विधान है। दूसरे उद्देश में समान सामाचारीवाले दोषी साधुओं से सम्बद्ध प्रायश्चित्त, सदोष रोगी की सेवा, अनवस्थित आदि की पुन: संयम में स्थापना, गच्छ का त्याग कर पुनः गच्छ में मिलनेवाले की परीक्षा एवं प्रायश्चित्तदान आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उद्देश में इन बातों का विचार किया गया है : गच्छाधिपति की योग्यता, पदवीधारियों का आचार, तरुण श्रमण का आचार, गच्छ में रहते हुए अथवा गच्छ का त्याग कर अनाचार सेवन करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त और मृषावादी को पदवी प्रदान करने का निषेध । चतुर्थ उद्देश में इन विषयों पर प्रकाश डाला गया है : आचार्य आदि पदवीधारियों का श्रमण परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु के समय श्रमणों का कर्तव्य, युवाचार्य की स्थापना इत्यादि । पंचम उद्देश साध्वियों के आचार, साधु-साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार, वैयावृत्त्य आदि से सम्बद्ध है। षष्ठ उद्देश यथानिर्दिष्ट विषयों से सम्बद्ध है : साधुओं को अपने सम्बन्धियों के घर कैसे जाना चाहिए, आचार्य आदि के क्या अतिशय हैं, शिक्षित एवं अशिक्षित साधु में क्या विशेषता है, मथुनेच्छा के लिए क्या प्रायश्चित्त है इत्यादि । सातवें उद्देश में इन बातों पर प्रकाश डाला गया है : सम्भोगी अर्थात् साथी साधु-साध्वियों का पारस्परिक व्यवहार, साधु-साध्वियों की दीक्षा, साधु-साध्वियों के आचार की भिन्नता, पदवी प्रदान करने का समुचित समय, राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने की स्थिति में श्रमणों का कर्तव्य आदि । आठवे उद्देश में शय्या-संस्तारक आदि उपकरण ग्रहण करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है। नवे उद्देश में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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