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जैन धर्म-दर्शन भी आवश्यकनियुक्ति का ही एक अंश है । इसमें श्रमण-जीवन के सामान्य नियमों पर प्रकाश डाला गया है।
छेद का अर्थ होता है न्यूनता अथवा कमी। किसी साधु के आचार में अमुक प्रकार का दोष लगने पर उसके श्रमणपर्याय ( साधु-जीवन के समय की गणना) में वरिष्ठता की दृष्टि से कुछ कमी कर दी जाती है। इस प्रकार के प्रायश्चित्त को छेद प्रायश्चित्त कहते हैं। सम्भवतः इस प्रायश्चित्त का विधान करने के कारण अमुक सूत्रों को छेदसूत्र कहा गया हो । वर्तमान में उपलब्ध छेदसूत्र छेद प्रायश्चित्त का ही नहीं, अन्य प्रायश्चित्तों एवं विषयों का भी प्रतिपादन करते हैं। निम्नोक्त छः ग्रन्थ छेदसूत्र कहलाते हैं : १. दशाश्रुतस्कन्ध, २. बृहत्कल्प, ३. व्यवहार, ४: निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प अथवा पंचकल्प । छेदसूत्रों में श्रमणाचार से सम्बद्ध प्रत्येक विषय का प्रतिपादन किया गया है। यह प्रतिपादन उत्सर्ग, अपवाद, दोष एवं प्रायश्चित्त से सम्बद्ध है। इस प्रकार का प्रतिपादन अंगादि सूत्रों में नहीं मिलता। इस दृष्टि से छेदसूत्रों का जैन आचारसाहित्य में विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहरकल्प एवं व्यवहार आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) की कृतियाँ हैं । ... दशाश्रुतस्कन्ध को आचारदशा के नाम से भी जाना जाता है । इसमें दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में द्रुत गमन, अप्रमाणित गमन, दुष्प्रमार्जित गमन, अतिरिक्त शय्यासन आदि बीस असमाधिस्थानों का उल्लेख है । द्वितीय अध्ययन में हस्तकर्म, मैथुनप्रतिसेवन, रात्रिभोजन, आधाकर्मग्रहण, राजपिण्डग्रहण आदि इक्कीस प्रकार के शबलदोषों का वर्णन है । तृतीय अध्ययन में तैतीस प्रकार की आशातनाओं पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्ययन में आठ प्रकार की गणिसम्पदाओं
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