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जैन धर्म-दर्शन
संलेखना :
जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् मृत्यु आने के समय तपविशेष की आराधना करना संलेखना कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभाषा में अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना कहते हैं। अ. श्चिम का अर्थ है जिसके पीछे कोई दूसरा नहीं है अर्थात् सबसे अन्तिम । मारणान्तिक का अर्थ है मृत्युरूप अन्त में होने वाली। संलेखना का अर्थ है जिसके द्वारा कषायादि कृश हों वैसी सम्यक् आलोचनायुक्त तपस्या । इस प्रकार अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना का अर्थ होता है मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यों की सम्यक् आलोचना करके शरीर व कषायादि को कृश करने के निमित्त की जानेवाली सबसे अन्तिम तपस्या । इसका सीधे शब्दों में अर्थ होता है अन्तिम समय में आहारादि का त्याग कर (पहले अन्न व बाद में जल अथवा दोनों एक साथ छोड़कर) समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करना । इस दृष्टि से संलेखना प्राणान्त अनशन है। संलेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचारशास्त्र में समाधिमरण व पण्डितमरण कहा गया है। इसे संथारा भी कहा जाता है। समाधिमरण व पंडितमरण का अर्थ होता है स्वस्थ चित्तपूर्वक व विवेकयुक्त प्राप्त होने वाली मृत्यु । संयार अर्थात् संस्तारक का अर्थ होता है बिछौना। चूकि संलेखना में व्यक्ति संस्तारक ग्रहण करता है अर्थात् आहारादि का त्याग कर बिछौना बिछा कर शान्त चित्त से एक स्थान पर लेटा रहता है इसलिए इसे संथारा कहते हैं। जब व्यक्ति का शरीर इतना निर्बल हो जाता है कि वह संयम अर्थात् आचार के पालन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होता है तब उससे मुक्त होना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। दूसरे शब्दों में, जब शरीर किसी
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