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आचारशास्त्र
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काम का न रह कर केवल भारभूत हो जाता है तब उससे मुक्ति पाना ही श्रेष्ठ होता है । ऐसी अवस्था में बिना किसी प्रकार का क्रोध किये प्रशान्त एवं प्रसन्न चित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना संलेखना व्रत का महान् उद्देश्य है । अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर निर्विकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी संलेखना है । श्रावक व श्रमण दोनों के लिए संलेखना व्रत का विधान है। इसे व्रत न कह कर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इसमें समस्त व्रतों का अन्त रहा हुआ है । इसमें जैसे शरीर का प्रशस्त अन्त अभीष्ट है वैसे ही व्रतों का भी पवित्र अन्त वांछित है ।
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संलेखना अथवा संथारा आत्मघात नहीं है । आत्मघात के मूल में अतिशय क्रोधादि कषाय विद्यमान होते हैं जबकि संलेखना के मूल में कषायों का सर्वथा अभाव होता है । आत्मघात चित्त की अशान्ति एवं अप्रसन्नता का द्योतक है जबकि संलेखना चित्त की प्रसन्नता एवं शान्ति की सूचक है । आत्मघात में मानसिक असन्तुलन की परिसीमा होती है जबकि संलेखना में समभाव का उत्कर्ष होता है । आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है जबकि संलेखना निर्विकार चित्तवृत्ति का फल है । संलेखना जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् शरीर की अत्यधिक निर्बलता - अनुपयुक्तता - भारभूतता की स्थिति में अथवा अन्यथा मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर की जाती है जबकि आत्मघात किसी भी समय पर किया जा सकता है । संलेखनापूर्वक होने वाली निष्कषायमरण, समाधिमरण एवं पण्डितमरण है जबकि आत्महत्या सकषायमरण, बालमरण एवं अज्ञानमरण है । संलेखना
मृत्यु
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