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बैन धर्म-दर्शन
आत्मा अनुकूल संयोगों अर्थात् कारणों को विद्यमानता के कारण मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब विकास की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करती है तब उसमें तीव्रतम राग-द्वेष को किंचित् मंद करने वाला बलविशेष उत्पन्न होता है। इसे जैन कर्मशास्त्र में ग्रन्थिभेद कहा जाता हैं। ग्रंथिभेद का अर्थ है तीव्रतम राग-द्वेष अर्थात् मोहरूप गाँठ का छेदन अर्थात् शिथिलीकरण । ग्रंथिभेद का कार्य बड़ा कठिन होता है। इसके लिए आत्मा को बहुत लम्बा संघर्ष करना पड़ता है। चतुर्थ गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमें मोह की शिथिलता के कारण सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सदसद्विवेक तो विद्यमान रहता है किन्तु सम्यक् चारित्र का अभाव होता है। इसमें विचार-शुद्धि की विद्यमानता होते हुए भी आचार-शुद्धि का असद्भाव होता है। इस गुणस्थान का नाम अविरत-सम्यग्दृष्टि है।
देशविरति-देशविरत-सम्यग्दष्टि नामक पाँचवें गुणस्थान में व्यक्ति की आत्मिक शक्ति और विकसित होती है। वह पूर्णरूप से सम्यक् चारित्र की आराधना तो नहीं कर पाता किन्तु आंशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है । इसी अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैन आचारशास्त्र में उपासक अथवा श्रावक कहा गया है। श्रावक की आंशिक चारित्र-साधना अणुवत के नाम से प्रसिद्ध है । अणुव्रत का अर्थ है स्थूल, छोटा अथवा आंशिक चारित्र अथवा नियम। अणुवती उपासक पूर्णरूपेण अथवा सूक्ष्मतया सम्यक् चारित्र का पालन करने में असमर्थ होता है । वह मोटे तौर पर ही चारित्र का पालन करता है । स्थूल हिंसा, झूठ आदि का त्याग करते हुए अपना व्यवहार चलाता हुआ यत्किचित् आध्यात्मिक साधना करता है।
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