SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मसिद्धान्त ४६७ सर्वविरति-छठे गुणस्थान में साधक कुछ और आगे बढ़ता है। वह देशविरति अर्यात आंशिक विरति से सर्वविरति अर्थात् पूर्णविरति की ओर आता है। इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहला कर महावत कहलाता है। वह अणुव्रती उपासक अथवा श्रावक न कहला कर महाव्रती साधक अथवा श्रमण कहलाता है । यह सब होते हुए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस अवस्था में स्थित साधक का चारित्र सर्वथा विशुद्ध होता है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का दोष आता ही नहीं । यहाँ प्रमादादि दोषों को थोड़ी-बहुत संभावना रहती है अतएव इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त-संयत रखा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भमिका से नीचे भी गिर सकता है तथा ऊपर भी चढ़ सकता है। अप्रमत्त अवस्था-सातवें गुणस्थान में स्थित साधक प्रमादादि दोषों से रहित होकर आत्मसाधना में लग्न होता है। इसीलिए इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में रहे हुए साधक को प्रमादजन्य वासनाएं एकदम नहीं छोड़ देतीं। वे बीच-बीच में उसे परेशान करती रहती हैं। परिणामतः वह कमी प्रमादावस्था में विद्यमान रहता है तो कभी अप्रमादावस्था में । इस प्रकार साधक की नैया छठे व सातवें गुणस्थान के बीच में डोलती रहती है। ___ अपूर्वकरण-यदि साधक का चारित्र-बल विशेष बलवान् होता है और वह प्रमादाप्रमाद के इस संघर्ष में विजयी बन कर विशेष स्थायी अप्रमत्त अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे तदनुगामी एक ऐसी शक्ति की मंप्राप्ति होती है जिससे रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy