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________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य थी ? पराभूत हो जाने पर भी अपना कदाग्रह न छोड़ना अलग बात है किन्तु महावीर जैसे महान व्यक्ति से भी पराभूत न होना दूसरी . बात है। प्राजीविक-संघाधिपति मखलिपुत्र गोशाल का इतिवृत्त सुनाते हुए भगवान महावीर अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को बताते हैं कि कोल्लाक सन्निवेश में जनता द्वारा बहुल ब्राह्मण के यहां हुई दिव्यवृष्टि का समाचार सुनकर गोशाल के मन में विचार उत्पन्न हुमा कि मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम प्राप्त है वैसी ऋद्धि प्रादि अन्य श्रमण-ब्राह्मण को प्राप्त नहीं है। अतः मेरे धर्माचार्य व धर्मोपदेशक यहीं होने चाहिए। यह सोचकर वह खोजता-खोजता कोल्लाक सन्निवेश के बाहर मनोज्ञ भूमि में मेरे (महावीर के) पास आया और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार कर निवेदन करने लगा-हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका शिष्य हूँ। मैंने गोशाल की यह बात स्वीकार कर ली। उपर्युक्त कथन में छद्मस्थ (सराग) महावीर के विषय में उल्लिखित दो बातें विचारणीय हैं : १. महावीर को धर्मोपदेशक कहा गया है, २. महावीर ने गोशाल को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया था। तीर्थकर महावीर ने केवली (वीतराग) होने के बाद ही धर्मोपदेश का कार्य प्रारम्भ किया था। इससे पूर्व उनके साथ धर्मोपदेशक विशेषण लगाना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। साधनावस्था में तीर्थकर तपःकर्म में लीन रहता है, उपदेश देने का काम नहीं करता। गोशाल ने धर्मोपदेश से प्रभावित होकर नहीं अपितु दिपवृष्टि प्रादि से आकर्षित होकर महावीर का शिष्यत्व भंगीकार करना चाहा। पहली बार तो महावीर ने गोशाल की बात पर ध्यान न दिया किन्तु दूसरी बार वे उसे शिष्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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