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________________ जैन धर्म-दर्शन रूप में अपने साथ रखने के लिए तैयार हो गये तथा उसके साथ छः वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करते हुए विचरते रहे। महावीर ने साधनाकाल में गोशाल को अपने साथ रहने की (और वह भी शिष्य के रूप में) अनुमति क्यों दी ? क्या ऐसा करना तीर्थङ्कर की सरागावस्था में विहित है ? तीर्थङ्कर वीतराग होने के बाद ही शिष्य बनाता है तथा उनके साथ विचरता है। सरागावस्था में वह अकेला ही रहता एवं विचरता है। उसका यही आचार है । इस नियम का अपवाद किसी अन्य प्रागम में दृष्टिगोचर नहीं होता। हाँ, आवश्यकपूणि आदि व्याख्या-ग्रन्थों में व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रस्तुत शतक का अनुगमन करके गोशाल का चरित्र अवश्य ही विचित्र ढंग से चित्रित किया गया है। एक वार महावीर गोशाल के साथ सिद्धार्थग्राम से कूर्मग्राम की ओर जा रहे थे । मार्ग में पत्र-पुष्पयुक्त एक तिल के पौधे को देखकर गोशाल ने महावीर से पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा फलेगा या नहीं ? ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ? महावीर ने कहा--गोशाल ! यह तिल का पौधा फलेगा और ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे। गोशाल को महावीर की बात पर विश्वास नहीं हुमा। महावीर को झठा सिद्ध करने की भावना से गोशाल ने उस तिल के पौधे को उखाड़कर एक ओर फेंक दिया। बाद में वर्षा के कारण वह तिल का पौधा उसी मिट्टी में जम गया तथा बद्धमूल हो गया। वे सात तिलपुष्प भी मरकर उसी तिल के पौधे की एक फली में तिलरूप में उत्पन्न हुए । प्रस्तुत शतक के उपयुक्त वर्णन में एक बात. विचारणीय है । क्या महावीर छद्मस्थावस्था में जीव की भविष्यत्कालीन उत्पत्ति का ज्ञान कर सकते थे ? जीव अरूपी द्रव्य है । असर्वज्ञ अपने अवधिज्ञान के द्वारा रूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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