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________________ २२० जैन धर्म-दर्शन परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है। इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु में परिवर्तन हुआ। यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुआ-इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता। यही बात ऊपर कही गई है। स्वजाति का त्याग किये बिना विविध प्रकार के परिवर्तन होना काल का कार्य है। इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकण्ड आदि विभाग करते हैं। यह व्यावहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है । क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन बौद्ध परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त है। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से काल का लक्षण परिवर्तन है। ____काल असंख्यात प्रदेश-प्रमाण होता है। ये प्रदेश एक अवयवी के प्रदेश नहीं हैं अपितु स्वतन्त्र रूप से सत् हैं। इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक काल-प्रदेश बैठा हुआ है । रत्नों की राशि की तरह लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो एक-एक द्रव्य स्थित है वह काल है । यह असंख्यात द्रव्य-प्रमाण है।' इससे यह फलित होता है कि काल एक द्रव्य नहीं है, अपितु असंख्यात द्रव्यप्रमाण है। परिवर्तन की दृष्टि से यद्यपि काल के सभी प्रदेशों का एक स्वभाव है तथापि वे परस्पर भिन्न हैं। वे सब मिलकर एक अवयवी का निर्माण नहीं करते। जिस प्रकार उपयोग सभी आत्माओं का १. लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ -द्रव्यसंग्रह, २.२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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