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________________ तत्त्वविचार २२१ स्वभाव है. किन्तु सभी आत्माएं भिन्न-भिन्न हैं, उसी प्रकार वर्तनालक्षण का साम्य होते हए भी प्रत्येक काल भिन्न-भिन्न है । जीवत्व सामान्य को लेकर सभी आत्माओं को जीव कहा जाता है, उसी प्रकार कालत्व ( वर्तना ) सामान्य की दृष्टि से ORIGINE सभी कालों को काल कहा गया है। अतः काल वर्तना-सामान्य की दृष्टि से असंख्यात हैं। काल को अस्तिकाय न मानकर अनस्तिकाय क्यों माना गया ? इसका सन्तोषप्रद उत्तर देना कठिन है । यह कहा जा सकता है कि द्रव्य के प्रत्येक अवयवअंश का परिवर्तन स्वतंत्र है। इसलिए प्रत्येक काल स्वतन्त्र है। यहाँ एक कठिनाई है। परिवर्तन प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक अंश में होता है। पुद्गल द्रव्य के अनन्त प्रदेश हैं । इसी प्रकार सब जीवों के अनन्त प्रदेश हैं। ऐसी स्थिति में असंख्यात प्रदेशप्रमाणवाला काल अनन्त प्रदेशों में परिवर्तन कैसे कर सकता है ? जहाँ तक असंख्यात प्रदेशवाले आकाश में अनन्त प्रदेश के रहने का प्रश्न है, यह बात किसी तरह मान भी लें कि परस्पर व्याघात के बिना दीपकों के प्रकाश की तरह उनका रहना सम्भव है परन्तु परिवर्तन ऐसी चीज नहीं कि एक काल एक से अधिक अंश में परिवर्तन कर सके । आकाश की तरह परिवर्तन की बात भी किसी तरह घट सकती, यदि काल आकाश की भाँति एक अखण्ड द्रव्य होता । इस कठिनाई को दूर करने के लिए यह माना गया कि काल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित है, न कि जीव या पुदगल के प्रत्येक प्रदेश पर । जब लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर काल की सत्ता मानी गई तो क्या कारण है कि आकाश की तरह काल को अखण्ड द्रव्य नहीं माना गया ? आकाश का धर्म अवकाशदान है और अवकाश में विशेष विभिन्नता नहीं होती। काल का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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