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जैन धर्म-दर्शन
हुए दिखाई देते हैं । इसका जो भी कारण हो, इतना निश्चित है कि पापपूर्ण आचरण से भी धनादि की प्राप्ति हो सकती है अर्थात् पापी भी समृद्धिशाली हो सकते हैं । पमृद्धि हो या न हो, सुख-दुःख का अनुभव प्रधानतया आन्तरिक कारणों अर्थात् पुण्य-पाप के आधार पर होता है। समृद्धिशाली भी दुःखी देखे जाते हैं, जबकि निर्धन व्यक्ति भी सुख का अनुभव करने वाले होते हैं। विपुल संग्रह करने वाले भी दुःखी पाये जाते हैं, जबकि अकिंचन भी सुखी दिखाई देते हैं। जैसे ऐसा नियम नहीं है कि धनादि की उपलब्धि पुण्य से ही होती है वैसे ही ऐसा भी नियम नहीं है कि पुण्य से धनादि की प्राप्ति होती ही है । पुण्यपूर्ण कृत्य हो अथवा पापपूर्ण कृत्य, परिस्थितियों की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के अनुसार धनादि की प्राप्ति हो भी सकती है और नहीं भी। जिस प्रकार धनादि की प्राप्ति पुण्ययुक्त एवं पापयुक्त अर्थात् अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों से हो सकती है उसी प्रकार धनादि का उपयोग भी पुण्यमय और पापमय दोनों प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है। पुण्यमय अर्थात् सत्कार्य में किया जाने वाला धनोपयोग शुभ कर्मों का उपार्जन करने वाला होने के कारण सुखद होता है, जबकि पापमय अर्थात् असत्कार्य में किया जाने वाला धनोपयोग अशुभ कर्मो का उपार्जन करने वाला होने के कारण दुःखद होता है । यही बात पुण्ययुक्त एवं पापयुक्त धनोपार्जन के विषय में भी समझनी चाहिए।
पुरुषार्थ द्वारा होने वाली अर्थात् प्रयत्नजन्य किसी वस्तु की प्राप्ति पुण्य-पाप से सम्बद्ध हो सकती है किन्तु बिना किसी प्रकार के पुरुषार्थ के अर्थात स्वतः होने वाली धनादि की प्राप्ति का गुपय-पाप से कोई सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता। जो
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