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________________ कर्मसिद्धान्त साधन-सामग्री किसी के जन्म के पूर्व ही कहीं मौजूद हो और उसे संयोगवश बिना किसी प्रकार का पुरुषार्थ किये ही प्राप्त हो जाय तो इसमें उसके पुण्य का हाथ कैसे हो सकता है ? उसके जन्म के पूर्व तो उसका पुण्य वहाँ है ही नहीं अतः उस साधन-सामग्री के उपार्जन से उसका सम्बन्ध होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । अनुभव तो यही बताता है कि उस सामग्री का उपार्जन किसी अन्य के पुरुषार्थ द्वारा ही हुआ है। वह तो संयोगवशात् उसका स्वामी बन गया है। उसने उस सामग्री के उपार्जन में किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं किया है। ऐसी स्थिति में वह साधन-सामग्री उसके पुण्य से कैसे सम्बद्ध हो सकती है? हाँ, उस सामग्री के निमित्त से होने वाला सुख-दुःख अवश्य उस व्यक्ति के पुण्य-पाप से सम्बद्ध होता है । यही बात संयोगजन्य साधन-सामग्री की अप्राप्ति के विषय में भी समझनी चाहिए अर्थात् स्वतः प्राप्त निर्धनता पार का परिणाम नहीं है अपितु उस निर्धनता से होने वाला सुख-दुःख पुण्य-पाप का परिणाम है। इस प्रकार पुण्य-पाप का फल अमीरी-गरीबी नहीं अपितु सुखदुःख है । चूकि शुभाशुभ कर्मों का सम्बन्ध शरीर से है अतः पुण्य-पाप और तत्परिणामरूप सुख-दुःख-भी शरीर से ही सम्बद्ध है । बाह्य पदार्थ सुख-दुःख की उत्पत्ति में निमित्त-कारण हा सकत है । सुख-दुःख का उपादान-कारण तो शुभाशुभ कर्मरूप पुण्य-पाप ही है। कर्म को विविध अवस्थाएँ : जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । ये अवस्थाएं कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय आदि से सम्बन्धित हैं। इनका हम मोटे तौर पर ग्यारह भेदों में वर्गीकरण कर सकते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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