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________________ ४८६ जैन धर्म-दर्शन १. बन्धन, २. सत्ता, ३. उदय, ४. उदीरणा, ५. उद्वर्तना, ६. अपवर्तना, ७. संक्रमण, ८. उपशमन, ६. निधति, १०. निकाचन, ११. अबाध ।' १. बन्धन-आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का बंधना अर्थात् क्षीरनीरवत् एकरूप हो जाना बन्धन कहलाता है। बन्धन के बाद ही अन्य अवस्थाएं प्रारम्भ होती हैं । बन्धन चार प्रकार का होता है : प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध अथवा रसबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनका वर्णन पहले किया जा चुका है। २. सत्ता-बद्ध कर्म-परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं। इसी अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं। ३. उदय-कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम उदय है । उदय में आने वाले कर्म-पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं । कर्म-पुद्गल का नाश क्षय अथवा निर्जरा कहलाता है। ४. उवोरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है। जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं करता। जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये जा सकते हैं उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है। सामान्यतः जिस कर्म १. देखिए-आत्ममीमांसा, पृ० १२८-१३१; Jaina Psychology, पृ० २५-२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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