SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सापेक्षवाद ३६१ • जहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है वहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध समझना चाहिए। जहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है वहाँ सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध समझना चाहिए | सत् और असत् दोनों का युगपद् प्रतिपादन करने की सूझ तर्कयुग के जैनाचार्यों की मालूम होती है । यह बात आगे स्पष्ट हो जाएगी । अवक्तव्यता दो तरह की है- एक सापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । सापेक्ष अवक्तव्यता में इस बात की झलक होती है कि तत्त्व सत्, असत् और सदसत् रूप से अवाच्य है । इतना ही नहीं अपितु नागाजुन जसे माध्यमिक बौद्धदर्शन के आचार्य ने तो सत्, असत्, पदसत् और अनुभय इन चारों दृष्टियों से तत्त्व को अवाच्य माना। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वस्तु चतुष्कोटिविनिर्मुक्त है। इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता एक, दो, तीन या चारो पक्षों के निषेध पर खड़ी होती है । जहाँ तत्त्व न सत् हो सकता है, न असत् हो सकता है, न सत् और असत् दोनों हो सकता है, न अनुभय हो सकता है ( ये चारों पक्ष एक साथ हों या भिन्न-भिन्न ) वहाँ सापेक्ष अवक्तव्यता है । निरपेक्ष अवक्तव्यता के लिए यह बात नहीं है । वहाँ तो तत्त्व को सीधा 'वचन से अगम्य' कह दिया जाता है ।" पक्ष के रूप में जो अवक्तव्यता है वह सापेक्ष अवक्तव्यता है, ऐसा समझना चाहिए । उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य ये चारों पक्ष मिलते हैं, यह हम लिख चुके हैं। बौद्ध त्रिपिटक में भी ये चार पक्ष मिलते हैं । सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है । उसी १. यतो वाचो निवर्तन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy