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जैन धर्म-दर्शन
वादी दृष्टिकोणवाली संस्कृतियां हैं। जैनधर्म निराशावादीहै यानी दुनिया दुःखपूर्ण है, इसमें विश्वास करता है। वैदिक आशावाद में इस तरह की मान्यता नहीं है। जैनधर्म तथा द्राविड़धर्म दोनों ही अनीश्वरवाद और आत्मा एवं भौतिक पदार्थों के बीच के द्वन्द्ववाद को मानते हैं। दोनों ही पुनर्जन्म और कर्मवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं। प्रारम्भ में ब्राह्मणों की जानकारी में ये दोनों सिद्धान्त थे,ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतः विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि सिन्धु-सभ्यता के लोग द्राविड़ थे। मोहनजोदड़ो-निवासी द्राविड़ थे, उनकी भाषा और संस्कृति भी द्राविड़ ही थी।
जैनधर्म तथा बौद्धधर्म : जैन और बौद्ध धर्म श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि बौद्ध और जैन स्रोतों के आधार पर जैनधर्म की प्राचीनता को आंकने का प्रयास किया जाय तो यह स्पष्ट ज्ञात होगा कि जैनधर्म बौद्धधर्म से प्राचीन है । बौद्धग्रन्थों के 'निगण्ठ नाटपुत्ते जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर महावीर ही हैं। उनके निर्वाण का स्थान पावा बताया गया है। बौद्धमतवालों ने जैनों को अपना पूर्वसंगठित प्रतिद्वन्द्वी माना है। बुद्ध ने सत्य की खोज के लिए अनेक प्रयोग किये थे पर महावीर के जीवन में ऐसी बात नहीं मिलती। उन्होंने पुराने निग्रन्थ धर्म को अपनाया और उसी का उपदेश दिया।
दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में निर्ग्रन्थ धर्म के चतुर्याम का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट होता है कि बौद्ध लोगों को जैन परम्परा की जानकारी थी। भगवान् महावीर से पूर्व होनेवाले भगवान् पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया था।
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