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जैन परम्परा का इतिहास
महावीर ने उसी का अनुगमन किया लेकिन उसमें एक व्रत बढ़ाकर उसे पंचयाम-पंचव्रत का रूप दे दिया, यह जनों के उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २३) से स्पष्ट होता है। इस आगम ग्रन्थ में पार्श्व के अनुयायी केशी तथा महावीर के अनुयायी गौतम के बीच होनेवाले वार्तालाप का बड़ा ही रोचक वर्णन है। इसमें दोनों ही पक्षों के नेताओं ने अपने-अपने धर्मगुरुओं के सिद्धान्तों को जाना-पहचाना है । उन्होंने चतुर्याम तथा पंचव्रत का व्याख्यान किया है और यह स्वीकार किया है कि वास्तव में ये दोनों (पार्श्व तथा महावीर के) सिद्धान्त एक ही हैं। पावं की ऐतिहासिकता :
भगवान् पार्श्व की ऐतिहासिकता को अब निर्विरोध स्वीकार कर लिया गया है। वे महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे। उनका जन्म वाराणसी के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र के रूप में हुआ था। ३० वर्ष की अवस्था में घर-बार छोड़कर उन्होंने संन्यास लिया और ८३ दिनों तक लगातार तपस्या करते रहे। ८४वें दिन उन्हें सर्वज्ञता प्राप्त हुई। ७० वर्ष तक उन्होंने उपदेश दिया तथा १०० वर्ष की अवस्था में उन्हें सम्मेतशिखर पर मोक्ष की प्राप्ति हुई।
भगवान् पार्श्व द्वारा उपदिष्ट चार व्रत ये हैं-- हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करना और धनसंचय न करना । यद्यपि इन्हीं में ब्रह्मचर्य व्रत भी अन्तनिहित है तथापि पार्श्व और महावीर के बीच के २५० वर्षों में आचारविषयक कमजोरियां इतनी अधिक बढ़ गई कि महावीर को पूर्वप्रतिष्ठित चार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत अलग से जोड़ना पड़ा। इस प्रकार भगवान् महावीरोपदिष्ट व्रतों की संख्या चार के स्थान पर पांच हो गई।
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