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जैन धर्म-दर्शन
सदैव बदलता रहता है । ज्ञान की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है किन्तु आत्मद्रव्य तो वही रहता है। ऐसी अवस्था में ज्ञान और आत्मा भिन्न हैं । ज्ञान की आत्मा से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वह आत्मा की ही एक अवस्था-विशेष है । इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। यदि आत्मा और ज्ञान में एकान्त अभेद होता तो ज्ञान के नाश के साथ-ही-साथ आत्मा का भी नाश हो जाता। ऐसी अवस्था में एक शाश्वत आत्मद्रव्य की उपलब्धि न होती। यदि ज्ञान और आत्मा में एकान्त भेद होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर न होता। एक व्यक्ति के ज्ञान की स्मृति दूसरे व्यक्ति को हो जादी अथवा उस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे खुद को भी न हो पाता । ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अराजकता और अव्यवस्था हो जाती। इसलिए ज्ञान और आत्मा का कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानना ही उचित है। द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान और आत्मा का अभेद मानना चाहिए और पर्याय-दृष्टि से दोनों का भेद मानना चाहिए। ___ आत्मा के आठ भेदों की बात भगवतीसूत्र में कही गई है। गौतम महावीर से पूछते हैं-हे भगवन् ! आत्मा के कितने प्रकार हैं ? महावीर उत्तर देते हैं. हे गौतम ! आत्मा आठ प्रकार का कहा गया है। वे आठ प्रकार ये हैं-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रामा और वीर्यात्मा ।' ये भेद द्रव्य और पर्याय दोनों दृष्टियों से हैं।
१. कहविहा णं भंते आया पण्णत्ता? गोयमा! अट्ठविहा आया
पण्णत्ता। तं जहा-दवियाया, कसायाया, जोगाया, उवओगाया, णाणाया, दंसणाया, चरित्ताया, वीरियाया।
-भगवतीसूत्र, १२. १०.४६६.
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