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जैन धर्म-दर्शन
होने पर पाटलिपुत्र (पटना) में जैन श्रमण संघ एकत्र हुआ । एकत्र हुए श्रमणों ने १२ अंगों में से ११ अंग तो व्यवस्थित कर लिए किन्तु दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग उनसे संगृहीत न हो सका । उस समय केवल आचार्य भद्रबाहु ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें दृष्टिवाद का ज्ञान था। चूँकि वे उस समय नेपाल में एक विशेष प्रकार के योगमार्ग की साधना में लीन थे इसलिए इस मुनि सम्मेलन में उपस्थित होने की दशा में न थे । यह देख संघ ने स्थूलभद्र एवं अन्य साधुओं को दृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए भद्रबाहु कै पास भेजा । उनमें से केवल स्थूलभद्र ही दृष्टिवाद ग्रहण करने में समर्थ हुए । भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को केवल दस पूर्व ही सार्थ पढ़ाये, पूरा दृष्टिवाद नहीं। शेष चार पूर्व विना अर्थ के ही बताये । इस प्रकार आचार्य स्थूलभद्र तक १२ अंग सुरक्षित रहे । यह आगमों की प्रथम वाचना है । इसके बाद आगम- साहित्य का क्रमशः ह्रास होता गया ।
द्वितीय वाचना मथुरा एवं बलभी इन दो स्थानों में हुई। एक लम्बे दुर्भिक्ष के बाद आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में श्रमण संघ मथुरा में एकत्र हुआ। जिसे जो याद रह सका उसके आधार पर श्रुत साहित्य का पुनः संग्रह किया गया। इस वाचना का काल वीर - निर्वाण संवत् ८२५ के आसपास का है । इसी समय वलभी में नागार्जुनसूरि की अध्यक्षता में इसी प्रकार का एक और मुनि सम्मेलन हुआ जिसमें आगमों को व्यवस्थित किया गया । द्वितीय वाचना के इन दो सम्मेलनों के कारण आगमों में स्वाभाविकतया पाठांतरों का प्रवेश हो गया ।
माधुरी एवं वालभी वाचना सम्पन्न होने के लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद वीर निर्वाण संवत् ६८० ( मतान्तर से ९६३ )
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