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________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य २३ में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में श्रमण-संघ को एकत्र कर उपलब्ध समस्त श्रुत को ग्रन्थबद्ध किया। देवद्धिगणि ने किसी नई वाचना का प्रवर्तन नहीं किया अपितु जो श्रुतपाठ पूर्व की दो वाचनाओं में निश्चित हो चुके थे उन्हीं को सुव्यवस्थित एवं सुसम्पादित करके ग्रन्थबद्ध किया। उन्होंने आगमों को ग्रन्थबद्ध करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखा। समान पाठों की पुनरावृत्ति न करते हुए तत्सम्बद्ध ग्रन्थविशेष अथवा स्थानविशेष का निर्देश कर दिया। एक ही ग्रन्थ में वही बात बार-बार आने पर पुनः-पुनः न लिखते हुए 'जाव' अर्थात् 'यावत्' शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया। इतना ही नहीं, महावीर के बाद की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं को भी उन्होंने आगमों में जोड़ दिया। माथुरी एवं वालभी इन दो पाठों में से देवद्धिगणि ने माथुरी पाठ को प्रधानता दी। साथ ही वालभी-पाठभेद को भी सुरक्षित रखा। - अंग अथवा अंगप्रविष्ट आगम-ग्रन्थ १२ हैं : १. आयारआचार, २. सूयगड-सूत्रकृत, ३. ठाण-स्थान, ४. समवाय, ५. वियाहपण्णत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ६. णायाधम्मकहा-ज्ञाताधर्मकथा, ७. उवासगदसा-उपासकदशा, ८. अंतगडदसा-अन्तकृतदशा, ६. अणुत्तरोववाइयदसा-अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. पण्हावागरण-प्रश्नव्याकरण, ११. विवागसुयविपाकश्रुत और १२. दिट्ठिवाय-दृष्टिवाद । इनमें से अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। आचारांग जैन आचार की आधारशिला है । यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधरकृत तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरकृत है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में पहले नौ अध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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