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________________ जैन धर्म-दर्शन आवश्यक नियुक्ति में क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मन्द आदि चौदह दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है ।" विशेषावश्यकभाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है । ये सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । 1 २५० मन:पर्ययज्ञान : मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मन:पर्ययज्ञान है । यह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित है, गुण के कारण उत्पन्न होता है और चारित्रवान् व्यक्ति ही इसका अधिकारी है । यह मन:पर्ययज्ञान की व्याख्या आवश्यकनिर्युक्तिकार ने की है । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है । जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है । उसका मन तद्तद् पर्यायों में परिणत होता है । मन:पर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है । उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति इस समय यह बात सोच रहा है। अनुमानकल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि 'अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है' मन:पर्ययज्ञान नहीं है। मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मन:पर्ययज्ञान है । यह ज्ञान आत्मपूर्वक होता है, न कि मनःपूर्वक । मन तो विषय मात्र होता है । ज्ञाता साक्षात् आत्मा है । १. २६-२८. २. मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थपागडणं । माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरितवओ || Jain Education International - आवश्यक निर्युक्ति, ७६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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