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________________ तत्त्वविचार २३३ क्षेत्र एवं तीस वर्षधर पर्वत हैं । यही मनुष्यक्षेत्र अथवा मनुष्यलोक है । पुष्करवर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर नामक एक पर्वत है । उस पर्वत के बाद मनुष्यलोक का अभाव है ।' मानुषोत्तर पर्वत तक के भाग का नाम मनुष्यलोक एवं उस पर्वत का नाम मानुषोत्तर इसलिए पड़ा कि वहां तक मनुष्यों का अस्तित्व है । उसके बाद के क्षेत्र में न तो कोई मनुष्य जन्म ग्रहण करता है, न रहता है और न मरता है । अवलोक: ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देव रहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं : कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न देव कल्प विमानों में रहते हैं। कल्पातीत देवों के विमान कल्प विमानों के ऊपर होते हैं । कल्प के सौधर्म आदि बारह अथवा सोलह भेद हैं। सौधर्म कल्प ज्योतिश्चक्र ( जिसका क्षेत्र मेरु के समतल भूभाग से ७६० योजन की ऊंचाई से आरंभ होकर ६०० योजन की ऊंचाई तक रहता है ) के ऊपर असंख्येय योजन जाने के बाद मेरु के दक्षिण भाग से उपलक्षित प्रदेश में स्थित है । उसके बहुत ऊपर उत्तर की ओर ऐशान कल्प है। सौधर्म के ऊपर समश्रेणि में सानत्कुमार कल्प है और ऐशान के ऊपर समश्रेणि में माहेन्द्र कल्प है। इन दोनों के ऊपर मध्य में ब्रह्मलोक कल्प है। ब्रह्मलोक के ऊपर समश्रेणि में क्रमशः लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार कल्प एक-दूसरे के ऊपर हैं। इनके ऊपर दक्षिण में आनत एवं उत्तर में प्राणत कल्प हैं। इनके ऊपर समश्रेणि में आरण और १. तत्त्वार्थसूत्र, ३. १२-१४. २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बारह कल्प माने गये हैं. जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय में सोलह कल्पों की मान्यता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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